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२ अक्रूर, ११५७
''अतिमानसका मूल स्वरूप है सत्य-चेतना जो अपने स्वभावके सहज अधिकारसे, अपने ही प्रकाशद्वारा जानता है : उसे ज्ञानपर पहुंचना नहीं होता, बल्कि ज्ञान उसके पास पहलेसे होता है । निश्चय ही वह, विशेषत: अपने विकास-कार्यमें, ज्ञानको बाह्य चेतनाके 1rपीछे रख सकता और इस तरह उसे सामने ले आ सकता है मानों बह पर्देके पीछेसे आया- हो; पर, तब भी, यह पर्दा केवल प्रतीत होता है, वास्तवमें यह वहां होता नहीं : ज्ञान बराबर वहां था, चेतना उसे अधिकृत किये थी और अब प्रकट करती है... 'ज्योतिर्मय मन' मे, जब वह पूरी वर्तुल पूर्णताको प्राप्त कर लेता है, सत्यका यह विशिष्ट गुण अपने-आपको प्रकट करता है । यद्यपि यह गुण वसन धारे होता है, पर वह वसन, उसे ढकता हुआ प्रतीत होनेपर भी, पारदर्शक होता है । क्योंकि यह भी एक सत्य- चेतना, ज्ञानकी एक आत्म-शक्ति ही है जो अतिमानससे ही उद्भूत और उसीपर आश्रित है, यद्यपि है सीमित और अवरकोटिका । जिस चीजको हमने विशेषत: 'ज्योतिर्मय मन'- का नाम दिया है बह वास्तवमें चेतनाके लोकोंकी उतरती क्रमपरपरामें ऐसा अंतिम स्तर है जिसमें अतिमानस अपनी पसंदकी सीमाद्वारा या स्व-अभिव्यक्तिकी क्यिाओंके अल्प- परिवर्तित रूपोंके द्वारा अपने-आपको आवृत कर रखता है, परंतु उसका मूल स्वभाव ज्यों-का-त्यों बना रहता है : उसमें प्रकाशकी, सत्यकी, ज्ञानकी ही क्रिया होती है, वहां अचेतना, अज्ञान, भूलम्गंतिके लिये कोई स्थान नहीं । वह ज्ञानसे
१८३ ज्ञानकी ओर बढ़ता है, यहां अभी हम सत्य-चेतनाकी सीमा पार कर अज्ञानके अंदर नहीं आये है ।', (अतिमानसिक अभिव्यक्ति) मधुर मां, मैं प्रकरणके इस अंशको समझा नहीं : '' 'ज्योतिर्मय मन' मे, जब वह पूरी वर्तुल पूर्णताको प्राप्त कर लेता हैं, सत्यका यह विशिष्ट गुण अपने-आपको प्रकट करता है, यद्यपि यह गुण वसन धारे होता है, पर वह वसन, उसे ढकता हुआ प्रतीत होनेपर भी, पारदर्शक होता है... ।',
हूं, इसमें तुम क्या नही समझे?
ऐसा वसन जो पारदर्शक होता है और
प्रतीक है ।
यह कुछ-कुछ ऐसी बात ह ।
अतिमानसिक दृष्टिमें यक्रुतिक बरतुओंका सीधा, समग्र और तत्काल ज्ञान प्राप्त हो जाता है, इन अर्थोंमें कि व्यक्ति प्रत्येक वस्तुको उसके अपने पूरे और समग्र रूपमें एक साथ देख लेता है, वस्तुके सत्यको उसके सब पहलुओंमें एक साथ और.. इन पहलुओंको मी युगपत पूरा-का-पूरा देख लेता है । पर ज्यों ही वह उसे समझाना या निरूपित करना चाहता है, यूं कह सकते हैं कि, वह उस स्तरपर उतरनेको विवश होता है जिसे श्रीअरविन्दने यहां ''ज्योतिर्मय मन'' कहा है जंहापर वस्तुओंको एकके बाद एक करके, एक विशेष क्रममें और एक-दूसरेके साथ विशेष संबंधमें कहना या सोचना या व्यक्त करना होता है । इसमें युग- पदता लुप्त हों जाती है क्योंकि व्यक्त करनेके हमारे वर्तमान ढंगकी स्थिति- मे सब चीजोको एक साथ, एक ही बारमें कह सकना असंभव है, अत. हम जो कुछ देखते या जानते है उसके एक भागको प्रदेशमें रखनेको विवश होते है ताकि हम उसे एक-एक करके सामने ला सकें, इसी चीजको उन्होंने ''पर्दा'' कहा है, जो पारदर्शक है क्योंकि व्यक्ति एक साथ सब कुछ देखता और जानता है, उसे वस्तुका समग्र ज्ञान होता है, परंतु वह उसे एक बारमें ही पूरे-का-पूरा व्यक्त नहीं कर सकता । जबतक हम वैसे ही बने है जैसे हम है, हमारे पास न तो शब्द है और न व्यक्त करनेकी संभावना । हमें अपने-आपको व्यक्त करनेके लिये आवश्यक रूपसे निम्न कोटिकी प्रक्रिया- का उपयोग करना पड़ता है, पर फिर भी हममें उस समय पूरा शान रहता
१८४ है; इस ज्ञानको शब्दोंमें संचारित करनेकी आवश्यकता ही हमें, यूं कह लें, हम जो कुछ जानते है उसके एक भागको पर्देमें रखने 'और उसे क्रमिक रूपसे बाहर लानेको विवश करती है । पर यह पर्दा पारदर्शक है क्योंकि हम वस्तुको जानते है - उसे उसकी समग्रतामें जानते, देरवते, समझते है -- पर हम सब कुछ एक ही साथ व्यक्त नहीं कर सकते, हमें चीजोंको एक- एक करके क्रमिक रूपसे कहना होता है । यह अभिव्यक्तिका पर्दा है जो हमारी प्रस्तुत करने और समझनेकी, दोनों ही आवश्यकताओंके अनुकूल है । शान वहां विद्यमान है, सचमुच विद्यमान है -- ऐसा नही है कि व्यक्ति उसे खोज रहा हो और ज्यों-ज्यों पाता जाता हो त्यों-त्यों व्यक्त करता जाता हों - यह वहां अपनी संपूर्णतामें विद्यमान है, पर अभिव्यक्तिकी आवश्यकता व्यक्तिको वस्तुओंको एक-एक करके कहनेको विवश करती है; और इससे स्वभावत. जो कुछ वह बोत्बता है उसकी सर्वशक्तिमत्ता कमी आ जाती है क्योंकि उसमें सर्वशक्तिमान तभी रह पाती है जब वस्तुकी समग्र दृष्टिको उसकी समग्रतामें व्यक्त किया जाय । सर्वज्ञता वहां तत्वतः विद्यमान है, वहा है, सुस्पष्ट रूपमें है, परंतु इस सर्वज्ञताकी संपूर्ण शक्ति कार्य नहीं कर सकती क्योंकि उसे अपने-आपको व्यक्त करनेके लिये एक स्तर नीचे उतर आना पड़ता है ।
समझमें आया कि मेरा क्या मतलब है? हां?
पूरे तौरसे अतिमानसिक ज्ञानमें वास कर सकनेके लिये अभिव्यक्तिके वर्तमान साधनोंसे भिन्न साधनोंकी आवश्यकता है । अतिमानसिक ज्ञानको अतिमानसिक तरीकेसे व्यक्त कर सकनेके लिये अभिव्यक्तिके नये साधनोंको विकसित करना होगा... । अब, हम अपनी मानसिक क्षमताको उसकी चरम अवस्थातक उठानेकी बाध्य है, ताकि वहां केवल एक प्रकारकी, यूं कह सकते है कि, मुश्किलसे देखनेवाली सीमारेखा रहे -- फिर भी सीमारेखा तो रहेगी, क्योंकि हमारे अभिव्यक्तिके साधन अभी मी मानसिक जगतके है, उनमें अतिमानसिक क्षमता नहीं है 1 हमारे पास उनके लिये आवश्यक इन्द्रिय मी नहीं हैं । हमें अतिमानसके जीव बनना होगा, जिनका उपादान अतिमानसिक हों, आंतरिक रचना अतिमानसिक हो ताकि हम अतिमानसिक ज्ञानको अतिमानसिक तरीकेसे अभियुक्त कर सकें । अबतक हम... आधे रास्तेमें है; हम, अपनी चेतनामें कहां, पूरी तरह अतिमानसिक दृष्टि और शानमें उदित हों सकते हैं, परंतु उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकते । अपने- आपको अभिव्यक्त करनेके लिये हमें फिरसे एक स्तर नीचे आनेको बाध्य होना पड़ता है ।
तो यह पर्दा जो उसे ढकता हुआ प्रतीत होनेपर भी पारदर्शक होता है,
१८५ चेतनाके लिये पारदर्शक है समझ रहे हों? क्योंकि चेतना वस्तुओंको अति- मानसिक तरीकेसे देखती और जानती है, पर एक भाग पर्देमें रहता है और केवल क्रमिक रूपसे ही बाहर आता है क्योंकि इसे दूसरी तरहसे करनेका कोई रास्ता नहीं । परंतु चेतनाके लिये यह. पारदर्शक है, यद्यपि बाह्यत यह छिपा प्रतीत होता है । यही बात है ।
( मौन)
कल हमने जो सिनेमा देखा था उसके बारेमें मुझसे प्रश्न पूछे गायें है, ... । पहला प्रश्न यदि और कुछ न कहा जाय तो विचित्र तो है ही! मैं उसे ठीक उसी रूपमें तुम्हारे सामने रख रही हू । मुझसे पूछा गया है :
''आपने 'प्रार्थना और ध्यान' पुस्तकमें जिन बुद्धका जिक्र किया है क्या वे ही वास्तविक बुद्ध हैं जिनकी प्रतिमाएं पूंजी जाती है? ''
प्रतिमाएं..... बुद्धिकी प्रतिमाएं हज़ारों है । एक बुद्ध वे है जिस रूपमे वे भारतमें गाने जाते है, ३ बुद्ध हैं जिस रूपमें वे लीकमें माने जाते है, वे बुद्ध है जो तिब्बतमें माने जाते है, वे बुद्ध हैं जो चीन, कंबोडिया, थाईलैड़, जापान और दूसरे स्थानोंपर माने जाते है । यदि तुम ऐतिहासिक तथ्यकी बात कर रहे हों तो मैं सोचती हू, हर एक तुमसे यही कहेगा कि वे भारत- के गौतम बुद्धिकी स्तुति करते हैं, पर असलमें बुद्ध धर्मकी हर एक शाखा, और. बहुत-सी दूसरी शाखाओंमें, प्रत्येककी बुद्धके बारेमें अपनी ही कल्पना है और वह एक दिव्य सत्ताकी कल्पना होनेकी अपेक्षा कहीं अधिक उस देवताकी कल्पना होती है जो प्रतिमामें पूजा जाता. है, इसलिये... यदि तुम मुझे कोई प्रतिमा दिखाओ और पूछो : ''क्या इस प्रतिमामें उन्हीं बुद्धका प्रभाव या उपस्थिति है जिन्हें आपने देखा है? '' तो मैं कह सकती हू, हां या नहीं, परंतु जब तुम कहते हो : ''जिनकी प्रतिमाएं पूंजी जाती है'', ता उत्तर दे सकना मेरे लिये संभव नही क्योंकि यह इसपर निर्भर है कि पूजी जानेवाली प्रतिमामें किस सत्ताको उतारा गया है । ऐतिहासिक दृष्टिसे यह सदा वही नाम होता है, पर वास्तवमें मैं नहीं जानती कि यह
'महात्मा बुद्धपर अंग्रेजीमें एक प्रलेख. चित्र : गौतम बुद्ध । '''प्रार्थना और ध्यान'' दिसंबर २० -२ १, १११६ मातृवाणी खण्ड १,
पृ ० २००-२०१
१८६ सदा वही आध्यात्मिक व्यक्तित्व होता है या नहीं, इसलिये मैं' कुछ नहीं कह सकती ।
यदि तुम मुझसे उन प्रतिमाओंके बारेमें पूछो जो हमने कल देरवी थीं... तुमने देखा कि वें कितनी अधिक थीं और उनमें कुछ तो बहुत, बहुत भिन्न थी । वह एक बहुत ही भिन्न बुद्ध थे । एक प्रतिमा ऐसी थी जो बार- बार दिखायी गयी थी, वह जो' कि बहुत प्रामाणिक है, पर वहां बहुत सारी ऐसी भी थीं जो कम-से-कम बुद्धके दूसरे ही व्यक्तित्वोंको प्रस्तुत करती थी । सब इसपर निर्भर है कि तुम्हारा मतलब क्या है, यदि तुम्हारा मतलब ऐतिहासिक रूपसे है तो, हां, वे सदा तुमसे यही कहेंगे कि ये बुद्ध ही है, पर प्रत्येक प्रतिमा भिन्न होती है ।
तो, यह हुआ पहला प्रश्न । अब हम दूसरी बातपर आते है जो बिलकुल भिन्न है :
''वर्तमान समयमें, बुद्धकी शिक्षा मानवजातिको अतिमानसीकरणके पथपर (बढ़नेमें) किस रूपमें सहायता या बाधा पहुंचा सकती है? ''
प्रत्येक वस्तु जो मानवजातिको प्रगति करनेमें सहायता पहुंचाती है, एक सहायता है और वह सब जो उसे प्रगति करनेसे रोकता है एक बाधा है!
वस्तुत:, यह प्रश्न तुम मुझसे इसलिये कर रहे हो क्योंकि हम 'धम्मपदका अध्ययन करते और उसपर ध्यान करते है'... । स्वभावत: मैंने इस पुस्तकको इसलिये लिया है क्योंकि मैं समझती हू कि विकासकी एक विशेष अवस्थामें यह बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकतीं है । यह एक साधना है जिसे कुछ सूत्रोंमें निश्चित रूप दिया गया है । यदि तुम इन सूत्रोंका यथोचित रूपमें उपयोग करो तो यह पुस्तक बहुत सहायक हो सकती है, अन्यथा मैं इसे लेती ही नहीं । कितनी सहायक हो सकती है यह प्रत्येक व्यक्तिपर निर्भर है । यह इसपर निर्भर है कि वह इससे लाभ उठा सकता है या नहीं ।
अब, अंतिम प्रश्न है :
''श्रीअर्रावंदने कहा है कि बुद्ध एक अवतार थे... ''
कुछ समयतक, प्रत्येक शुक्रवारको ध्यानसे पहले श्रीमां बौद्धधर्मकी अत्यंत पवित्र पुस्तक 'धम्मपद' भैंसे कुछ श्लोक पढा करती थीं ।
१८७ हम यह पहले कई बार कह चुके हैं । ओर फिर यही वह स्थल है जो अधिक रहस्यमय हों उठता है
' 'बुद्धके उपदेशोंको छोड़कर उनके व्यक्तित्वकी कौन-सी चीज संसारमें अभी भी विद्यमान है? ''
(जिस साधकने प्रश्न पूछा था उसे संबोधित करते हुए) यह भेद तुम किस- लिये करते हों?
बुद्ध जब निर्वाणमें चले गये तो यह कहा गया कि उनके उप- देश अब उनके अवशेषमें रहेंगे ।
अवशेषमें! अच्छा, तो इसका अर्थ हुआ कि दोनों चीजों साथ-साथ इकट्ठी रहती है । न मालूम क्यों तुम उसमें भेद कर रहे हो । उनके उपदेशोंमें उनके प्रभावकी कुछ चीज है, यह स्वाभाविक है! ये उपदेश ही उनके प्रभावको मानसिक क्षेत्रमें प्रसारित करते है ।
उपदेशोंको छोड़कर उनकी जो सीधी क्रिया है वह इने-गिने लोगोंतक ही सीमित है, केवल उन्हींतक जो उनके अनन्य उपासक है और जिनमें आह्वान करनेकी शक्ति है । अन्यथा, उनकी क्रियाका अतिमहत्वपूर्ण भाग, बलकि सारी-की-सारी क्रिया उनके उपदेशोंसे संबंधित है, उपदेशोंके साथ एक और मिली-जुली है । इनमें भेद करना कठिन प्रतीत होता है ।
(थोडी चुप्पीके बाद) भागवत शक्तिके जो रूप अवतार-रूपसे भिन्न- भिन्न व्यक्तियोंकी सूरतमें प्रकट हुए, वे किसी विशेष उद्देश्यको लेकर, किसी विशेष प्रयोजनके लिये ओर वैश्व-विकासके किसी विशेष कालमें प्रकट हुा?_ है, परंतु वे थे 'एक सत्ता' के ही विभिन्न पहलू । अतः भेद केवल उसमें है जो उनके कार्यका विशिष्ट रूप है, नहीं ता 'यह वही एक 'सत्य', वही एक 'शक्ति', वही एक शाश्वत 'जीवन' है जो इन रूपोंमें अभिव्यक्त होता है और किसी विशेष कालमें, किसी विशेष कारण व किसी विशेष उद्देश्यके लिये इन रूपोंको प्रकट करता है; वह इतिहासके कालगतिमें सुरक्षित हों जाता है, अतः नये रूपोंको ही सदा नयी प्रगतिके लिये प्रयोगमें लाया जाता है । पुराने रूप बने रह सकते है जैसे कि कोई स्पंदन चिरकालतक बना रहता है, पर ऐतिहासिक रूपसे यह कहा जा सकता है कि उनके अस्तित्वका हेतु अस्थायी होता है और नया कदम उठानेके लिये एक रूपका स्थान दूसरा रूप ले लेता है । मनुष्यकी भूल यह है वह सदा उससे
१८८ चिपका रहता है जो बीत चुका है, वह भूतको अनिश्चित कालतक बनाये रखना चाहता है । इन चीजोंका उपयोग उस कालमें करना चाहिये जब ये लाभकारी होती हैं । क्योंकि प्रत्येक व्यक्तिके विकासका एक इतिहास होता है : तुम उन अवस्थाओंमेंसे गुजर सकते हो जहां यह साधनाएं क्षणिक रूपमें उपयोगी हों, पर जब तुम उस क्षणको पार कर जाओ तो निश्चय ही तुम्हें किसी और चीजमें प्रवेश करना चाहिये और यह देखना चाहिये कि ऐतिहासिक रूपसे जो अबतक लाभकारी रहा है, वह अब लाभकारी नहीं रहा । निश्चय ही, मैं उन लोंगोंसे जो, उदाहरणार्थ, मानसिक विकास और संयमकी एक विशेष अवस्थातक पहुंच गये हैं, यह नहीं कहूंगी : ''धम्मपद पढ़ें। और उसपर चिन्तन करो,'' यह तो समय नष्ट करना होगा । मैं इसे उन लोगोंको देती इ जो उस अवस्थाके परे नहीं गये हैं जहां इसकी जरूरत होती है ।
परन्तु मनुष्य अपने कन्धोंपर सदा अन्तहीन बोझ लिये फिरता है । वह भूतकालकी किसी चीजको छोड़ना नही चाहता और उस निरर्थक ढेरके बोझके नीचे अधिकाधिक दबता जाता है ।
तुम्हारे पास एक पथ-प्रदर्शक होता है जो मार्गके एक भागके लिये होता है परन्तु जब तुम उतना चल लो तो उस पथको और उस पथ-प्रदर्शकको छोड़ दो और, और आगे बढ़ जाओ! यह एक ऐसी चीज है जिसे मनुष्य कठिनाईसे कर पाते है । जब उन्हें कोई ऐसी चीज मिल जाती है जो उन्हें सहायता पहुंचाती है ता वे उससे चिपटा जाते है और वे तनिक भी आगे सरकना नहीं चाहते । जिन्होंने ईसाई धर्मकी सहायतासे प्रगति की है ३ उसे छोड़ना नहीं चाहते, ३ उसे अपने कन्धोंपर ढोने फिरते है, जिन्होंने बौद्ध धर्मकी सहायतासे प्रगति की है वे उसे छोड़ना नहीं चाहते और उसे अपने कन्धोंपर ढोये फिरते है, ओर इस प्रकार यात्रा रुक जाती है और तुम्हें, अनिश्चित कालके लिये, देर हो जाती है ।
एक बार जब तुमने उस अवस्थाको पार कर लिया तो उसे झड़ जाने दो, उसे विदा हो जाने दो! तुम आगे बढ़ो ।
मां, बौद्धधर्मके पुनरुद्धारका जो वर्तमान धार्मिक-राजनीतिक आंदोलन...
क्या? ओह! मैं राजनीतिमें भाग नहीं लेती । यह एकदम व्यर्थ है । लोग चीजोंका, बस, राजनीतिक आवश्यकताओंके लिये उपयोग कर लेते है, लेकिन बह बिलकुल रोचक नहीं ।
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